Saturday 17 June 2017

अक्सर याद आती हैं।

अक्सर याद आती हैं अपने शहर की वो बेतरतीब गलियां,
जहां कहानियां हज़ार है दोस्तों से मुलाकात की,
कुछ कर गुजरने की जज़्बात की।

अक्सर याद आती हैं अपने शहर की वो बेतरतीब गलियां,
जहां ख्वाबों का आगाज़ हुआ,
ख़्वाहिशों का परवाज़ हुआ।

अक्सर याद आती हैं अपने शहर की वो बेतरतीब गलियां,
जहां कभी खुद को खो के भी ढूंढ लिया था,
और ज़ार ज़ार रो के भी हंस लिया था।

अक्सर याद आती हैं अपने शहर की वो बेतरतीब गलियां,
जहां मौके थोड़े कम ज़रूर, लेकिन रास्ते बेशुमार थे,
मंज़िल की जुस्तुजू भी थी, और हौसले बेअख्तियार थे।

अक्सर याद आती हैं अपने शहर की वो बेतरतीब गलियां,
जहां दिलों में कोई ख़ौफ़ न था,
नफरोतों का कोई दौड़ न था।

अक्सर याद आती हैं अपने शहर की वो बेतरतीब गलियां,
जो उस बड़े शहर की बुलंदी तक तो ले गयी,
लेकिन, ख़ुद कहीं पीछे रह गयी।

© शीरीं नाज़।

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